Sunday, August 28, 2011

फेसबूक


बेकार के दीवाने थे
बेकार का छुपाना था
न जाने क्यो गलियो
से छुप-छुप निकला करते थे
अजब सा पागलपन था ....
माँ के आँचल में बेठ
माँ की आज़ादी के
सपने बुनते थे
एक माँ को बिन
बोले दूसरी माँ के लिए
जान पल मे दे देते थे...
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काश की आज़ादी के
वक़्त भी फेसबूक होता
हर दो कदम पर दीवानो का
कुछ और स्टेटस होता
जान देने से पहले गले में
फंदा लगाकर फोटो लेते
और फसेबूक पर सबकी कॉमेंट पढ़ते
;)

Monday, August 15, 2011

वेदना

पुरष :

तेरे बालों की महक अब भी
मेरे बिस्तर में पड़ी है ...
उस रात सिमट गयी थी
जब खुद में ही तू ..
उस चद्दर की नमी
अब भी सूखी नहीं ... ....

औरत :

उस रात तेरी गर्मी में कुछ न बचा
तेरे अंगुलियों का नर्म एहसास
शब् को आज भी सवारते है
पर कमरे का सामान अब भी
बिखरा पड़ा है ...........