तनहा सा ,
सुनसान गली में खड़ा ,
एक मकान
जिसकी सीडियों से
चड़ता अँधेरा ,
मकान को डराता
धमकाता...अँधेरा
गलियों से जाते
हर एक मेहरबान
को डर डर के
डराता ये मकान ..
न जाने कब किसका
घर था ..
मगर आज दूसरे की
दी हुई उधार रोशनी का
मुहताज मकान ..
बेचारा मूक , शांत सा
खड़ा वो मकान ....
2 comments:
जब इन्सानों के महक चहक की रोशनी ना हो तो अंधेरा ही है जो आयेगा और डरायेगा ।
कविता एकदम नवीन भाव लिये हुए है ।
धन्यवाद आशाजी,आते रहिये||
Post a Comment