Saturday, March 29, 2014

बूडी औरत

न जाने कितनी ही राह से गुजरती हूँ
उम्र वही ठहरी रहती है पर
वक़्त मुझ पर से होकर गुज़रता है
घड़ी ने चल चल कर
कितने लकीरे उसने इस ज़मीन
पर बना दी की वो भी झुर्रियो वाली
कोई बूडी औरत नज़र आती है
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वो बूडी औरत जो सर पर रखे
अमरूद बेच रही है इस जलते सूरज
के साथ -साथ
खारे पानी के समुंदर ने
उसे घेर लिया है बहुत
नमक अमरदो के लिए
वो वही से लाती होगी..
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चुटकी नमक ,ज़िंदगी को और
मीठा कर देती है चलो न
झुर्री वाली औरत की आँखो
में चीनी घुल दे
सुना था मैने की उसके बेटे
बड़े सहाब हो गये है
हिसाब के पक्के है वो
बस अमरूद बेचने
वाली का थोड़ा हिसाब भूल गये

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