Wednesday, October 15, 2014

प्रेम

प्रेम तुम कहते हो, प्रेम है, मैने पूछा, कहाँ, बताओ न ..??
देखो वो लाल रंग का फूल कितना सुंदर है मन को बहा गया अपने ही रंग से
मैं रुक गयी हूँ उसे देखने, अपने मन को बहलाने के लिए उसे तोड़ लूँगी
कभी बालो में लगाओंगी या घर में सज़ा दूँगी | 
पर तुम कहते हो ये प्रेम है प्रेम प्रभावित करता है जैसे आकर्षण की कोई वस्तु,
आकर्षण, वो नही ठहराता ..प्रेम के लिए प्रेम का होना ज़रूरी है
ढूंढते है कहा रख कर भूल गये प्रेम
ठहरा और चंचल मन दोनो ही प्रेम ढूंढते है कैसे अजीब बात है मन एक से है
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किसान ज़मीन को बीज दे रहा है और ज़मीन बिना किसी विरोध के उसे अपने में गुन रही है और एक दिन अंकुरित बीज प्रेम कहानी कहेंगे,कहेंगे की मिट्टी में प्रेम
बिना कुछ बोले मिट्टी ने बीज से प्रेम कर लिया |
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मुझे बार बार तुम्हे क्यो कहना पड़ता है सुनो तुम प्रेम हो , न कहने पर प्रेम ठहरेगा नहीं?? क्या कोई बात कहना इतना ज़रूरी है ?
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पता है जब नानी दादी थी
तो मुझे घर की हर दीवाल पर प्रेम
का रंग चड़ा हुआ मिलता था
दीवाली पर तो प्रेम ही चड़ता था
ना जाने कौन कौन से रंग
लोग ले आते थे पर वो उनके हाथ
लगते ही सारे रंग सुर्ख प्रेम होता था
वो बड़े बड़े रंग रेज़ थे
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मेरी माँ जब आईने में सूरत
देखती थी तो आईना उन्हे अक्सर
उन्हे ढूंढता था बड़ी शिकायत थी
उस आईने को, हर वक़्त सिर्फ़ मेरे
पिता का ही अक्स दिखा पाता था
चाहकर भी माँ नहीं ढूँढ पाया
सुना है साथ साथ रहने वाले दो लोग एक जैसे हो जाते है कुछ
सालो के बाद ..
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सुनो ना तुम जल्दी जल्दी ढूँढो..
कहा रख दिया ..किस आले में किस
अलमारी में रख दिया तुमने प्रेम
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मेरे बगीचे में पक्षी आ गये है
बहुत भूखे होंगे और मुझे आवाज़े दे रहे है
उन्होने मुझसे कभी नहीं कहा पर बस यूँही
रोज़ मुलाकात कर लेते है ,न जाओ तो
आवाज़े देते है
चलो मैं जाती हूँ तब तक तुम प्रेम ढूँढ लो कही ना
कही तुम रखकर भूल गये हो ..ढुंढ़ो न...

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