Sunday, February 8, 2015

यूँही कुछ बुना मैंने भी

मन बिनता है कंकड़ ,
हाथ बिनता है चावल
मन कंकड़ छोड़त 

नहीं ,हाथ साधे चावल
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दूर कर दिया लोगो  ने  उसे
यूँही कुछ तो  होता नहीं
सोने का दाम बड़े है शहर में
सच्चा सोना बिकता नहीं
औने -पौने  दाम में
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नथ में धरती देखूं
बिंदिया में चाँद
अब कोनसा जेवर लूँ
पैरों से जब बंधा है आसमान
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मन खोजत है जग
तन खोजत है तन
बुना  ताना -बाना
सुनो न दर्ज़ी तेरी
बुनाई में बड़े रंगीन छेद
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सड़को के पार दौड़ता है
पेट में जलाये मशाल
खेल की शुरुआत में
जलाये जो आग ,
अंत तक  न बुझे
अखबार की पुरानी खबर
गरीब की मौत भूख से हुई
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चला संभालने जग मुआ
संभाला नहीं खुद से मन
 मैं,मैं ,चिल्लाया बार बार
गली नुक्कड़  मांगे  भीख
न मिली कुर्सी ,न जग माया
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