Monday, August 31, 2015

प्रेम

जब मुट्ठी भर साँसे और कुछ टूटते लम्हो की
जिंदगी बची थी जिस्म अपने छिलके उतार
रहा था वो ज़मीन जिस पर लिपटकर सोता
था उस से प्रेम माँग रहा था
तुम मुझसे उस जगह मिलना ,जहाँ वो नदी
का पार है वहाँ मुझे पेड़ की तरह गाड़ दिया
जाएगा , और तुम मुझसे प्रेम लेकर जाना
और बाँट देना उन सब मे. जो प्रेम में
डूब कर मर गए थे कहना ,मैं प्रेम
वृक्ष हूँ
जब प्रेम की हुई कई क्रांतियाँ ख़त्म हो
जाएगी और तुम्हारी उंगली के बीच
बची जगह पर प्रेम उगने लगेगा
तब तुम, प्रेम की नई क्रांति करोगे
और बर्फ पर जाने वाले लोगो को
वो लकड़ी दोगे जो उन्हे उस मिट्टी के पहाड़ पर
चढने में मदद करेगी, और उनके
जगह जगह पर पड़े बूट के निशान में
प्रेम उगने लगेगा ,बर्फ पर पुहँचने
से पहले ,

Sunday, August 23, 2015

क्षणिकाएँ

खामोशी जलाती है.
कुछ नहीं मिल रहा है
न दर्द न प्रेम
अब कविता कैसे लिखूं
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शोर बहुत है आसपास
बस तू ज़रा बोल दे.
खामोशी का शोर दिल तक
जाता है
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लोग जाने क्या मुट्ठी में
दबाए घूमते है??
समुंदर,एक हथेली भर खारा पानी
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लो फिर आ गया दर पर
जितना जीना का सोचता है
उतनी ही प्यास बडती है.
ज़िंदगी बुझ रही है, प्यास में
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हज़ार इलाज़ लिए ज़िंदगी
जीने के , हज़ार वैद से
मिले ,पर किसी ने बुद्ध
बनने की दवा न दी
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सुना है बड़े संजीदा है लोग
अपनी अपनी मुहब्बत लेकर
दिल फिर भी कई
कहानियो से गुलज़ार है
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जब कुछ न हो कहने को तो
अपना ही किस्सा कह देते हैं
दुनियाँ का एक साज़ो सामान
आख़िर मैं भी तो हूँ
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चलो अब दर्द की गुहार ज़्यादा
न करो कुछ और लिखते है
आओ प्रेम प्रीत की बात करे
फिर बुद्ध हो जाए